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शौक़ को बे-अदब किया इश्क़ को हौसला दिया - बासित भोपाली कविता - Darsaal

शौक़ को बे-अदब किया इश्क़ को हौसला दिया

शौक़ को बे-अदब किया इश्क़ को हौसला दिया

उज़्र-ए-निगाह-ए-दोस्त ने जुर्म-ए-नज़र सिखा दिया

आह वो बद-नसीब आह नाला-ए-अंदलीब-ए-आह

मेरा फ़साना-ए-अलम जैसे मुझे सुना दिया

टूट सका न पस्ती-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र का सिलसिला

दाम न क़फ़स को हम ने ख़ुद दाम-ओ-क़फ़स बना दिया

मेरे मज़ाक़-ए-दीद की शर्म उसी के हाथ है

जिस ने शुआ-ए-हुस्न को हुस्न-ए-नज़र बना दिया

नाज़-ओ-नियाज़ आश्ना तग़ाफ़ुल-ए-ए'तिबार

हाए किस एहतिमाम से तुम ने मुझे मिटा दिया

ख़ूब इलाज कर दिया अपने मरीज़-ए-इश्क़ का

दर्द मिटाने आए थे दर्द दिया मिटा दिया

हाए वो हुस्न-ओ-इश्क़ जब 'बासित'-ए-बे-क़रार को

बर्क़-ए-निगाह-ए-दोस्त ने फूँक दिया जला दिया

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