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सब काएनात-ए-हुस्न का हासिल लिए हुए - बासित भोपाली कविता - Darsaal

सब काएनात-ए-हुस्न का हासिल लिए हुए

सब काएनात-ए-हुस्न का हासिल लिए हुए

बैठा हूँ दिल में इश्क़ की महफ़िल लिए हुए

इक इक नज़र फ़रेबी-ए-साहिल लिए हुए

हर मौज सामने है मिरा दिल लिए हुए

सरमाया-ए-नशात ग़म-ए-दिल लिए हुए

हूँ या'नी कैफ़-ए-इश्क़ का हासिल लिए हुए

फिर कश्ती-ए-हयात है गिर्दाब-ए-ग़म के साथ

तूफ़ान-ए-बे-नियाज़ी-ए-साहिल लिए हुए

जी चाहता है थक के कहीं बैठ जाइए

आग़ोश-ए-पा-ए-शौक़ में मंज़िल लिए हुए

जब लुत्फ़ है कि मैं भी रहूँ अपने होश में

आओ मिरी निगाह मिरा दिल लिए हुए

वो मस्त-ओ-महव अपने फ़रोग़-ए-नशात में

मैं मुतमइन हूँ दर्द भरा दिल लिए हुए

ऐ क़ैस-ए-दीद अपने हिजाबों से होशियार

हर पर्दा-ए-निगाह है महमिल लिए हुए

मुझ पर भी कुछ करम निगह-ए-नेश्तर-नवाज़

मैं भी हूँ एक दर्द भरा दिल लिए हुए

'बासित' किसी जिहत से न हो आश्ना मगर

हल्का सा इक तसव्वुर-ए-मंज़िल लिए हुए

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