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नहीं ये जल्वा-हा-ए-राज़-ए-इरफ़ाँ देखने वाले - बासित भोपाली कविता - Darsaal

नहीं ये जल्वा-हा-ए-राज़-ए-इरफ़ाँ देखने वाले

नहीं ये जल्वा-हा-ए-राज़-ए-इरफ़ाँ देखने वाले

तुम्हें कब देखते हैं कुफ़्र-ओ-ईमाँ देखने वाले

ख़ुदा रक्खे तिरे ग़म का बहुत नाज़ुक ज़माना है

सहर देखें न देखें शाम-ए-हिज्राँ देखने वाले

ये किस ने ला के रख दी सामने तस्वीर महशर की

अभी चौंके ही थे ख़्वाब-ए-परेशाँ देखने वाले

कहाँ तक आईना-दार-ए-तजल्लियात-ए-ख़ुद-बीनी

ये पर्दा भी उलट दे ओ दिल-ओ-जाँ देखने वाले

ये दीवाने सुजूद-ए-शौक़ की अज़्मत को क्या जानें

मुझे क्या पाएँ फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ देखने वाले

कभी गिर्दाब से भी खेल मौजों से भी टकरा जा

अरे साहिल पे रह कर जोश-ए-तूफ़ाँ देखने वाले

तिरे क़ुर्बान 'बासित' और 'बासित' की हर इक दुनिया

बहार-ए-वहशत-ए-आशुफ़्ता-हालाँ देखने वाले

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