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मेरे रोने पर किसी की चश्म गिर्यां हाए हाए - बासित भोपाली कविता - Darsaal

मेरे रोने पर किसी की चश्म गिर्यां हाए हाए

मेरे रोने पर किसी की चश्म गिर्यां हाए हाए

वो गुल-ए-तर वो फ़ज़ा-ए-शबनमिस्ताँ हाए हाए

वो किसी की याद-ए-पैहम शाम-ए-हिज्राँ हाए हाए

हर नफ़स वक़्फ़-ए-नवा-हा-ए-परेशाँ हाए हाए

दिल पे दर्द-ए-इश्क़ का एक एक एहसाँ हाए हाए

जान की सूरत में कोई दुश्मन-ए-जाँ हाए हाए

सुब्ह-ए-हिज्राँ बद-तर-अज़-शब-हा-ए-हिज्राँ हाए हाए

ज़िंदगी इक मुस्तक़िल ख़्वाब-ए-परेशाँ हाए हाए

दिल की राहत के लिए उन की मोहब्बत के लिए

कोशिश-ए-बे-सूद फिरता हद्द-ए-इम्काँ हाए हाए

मेरी ख़ातिर और वो मजबूरियों का ए'तिराफ़

उन के नाज़ुक दिल को भी एहसास-ए-हिज्राँ हाए हाए

कैफ़ियात-ए-सज्दा-ए-ज़ौक़-ए-मोहब्बत अल-अमाँ

का'बा-ए-दिल बे-नियाज़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ हाए हाए

वो मिरा कैफ़-ए-नज़र वो बे-ख़ुदी वो सरख़ुशी

फ़ुर्सत-ए-नज़्ज़ारा-हा-ए-हुस्न-ए-जानाँ हाए हाए

उन की महफ़िल में भी हूँ दामन-कश-ए-वहशत-ब-दिल

हर जगह इक आलम-ए-आदाब-ए-ज़िंदाँ हाए हाए

यास की मौजों में हर मंज़र का आख़िर डूबना

दिल से वो उठता हुआ तूफ़ान-ए-हिरमाँ हाए हाए

जो न समझें दर्द क्या है दर्द का एहसास क्या

कब तक उन के वास्ते 'बासित' ग़ज़ल-ख़्वाँ हाए हाए

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