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कुछ सिला ही न मिला इश्क़ में जल जाने का - बासित भोपाली कविता - Darsaal

कुछ सिला ही न मिला इश्क़ में जल जाने का

कुछ सिला ही न मिला इश्क़ में जल जाने का

शम्अ' ने लूट लिया सोज़ भी परवाने का

ज़ब्त-ए-फ़रियाद की बे-सूद तवक़्क़ो दिल से

ज़र्फ़ क्यूँ देखिए टूटे हुए पैमाने का

मेरा मिटना नहीं आसान मोहब्बत की क़सम

मौत है नाम तिरे दिल से उतर जाने का

हश्र तक रोएगी दुनिया-ए-मोहब्बत मुझ को

सिलसिला ख़त्म न होगा मिरे अफ़्साने का

मौत की नींद से इंसाँ को जगा देती है

जिस हक़ीक़त में ज़रा रंग हो अफ़्साने का

इस तरह मुझ से मुख़ातब है ज़माना जैसे

होश की फ़िक्र भी इक फ़र्ज़ हो दीवाने का

उन के अंदाज़-ए-सितम का है तक़ाज़ा 'बासित'

अहद कर लीजिए मर मर के जिए जाने का

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