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कोई मेयार-ए-मोहब्बत न रहा मेरे बा'द - बासित भोपाली कविता - Darsaal

कोई मेयार-ए-मोहब्बत न रहा मेरे बा'द

कोई मेयार-ए-मोहब्बत न रहा मेरे बा'द

हर तरफ़ आम हैं ख़ासान-ए-वफ़ा मेरे बा'द

सिलसिला उन के सितम का न रहा मेरे बा'द

बदला बदला सा है दस्तूर-ए-जफ़ा मेरे बा'द

कौन पहनेगा गले में तिरी उल्फ़त की कमंद

किस के सर होगी तिरी ज़ुल्फ़-ए-दोता मेरे बा'द

होंगी क़ुर्बान तिरे रुख़ पे निगाहें किस की

चाँद हो जाएगा हाले से जुदा मेरे बा'द

सोचता हूँ कि ब-ईं आलम-ए-बेताबी-ए-दिल

कौन माँगेगा मोहब्बत की दुआ मेरे बा'द

दाद चाहेंगे मिरी तरह मिटा कर किस को

इश्वा-ओ-ग़म्ज़ा-ए-अंदाज़-ओ-अदा मेरे बा'द

ठोकरें खाती फिरेगी शब-ए-यलदा-ए-फ़िराक़

ख़ून रोएगी हर इक ताज़ा बला मेरे बा'द

सूनी सूनी सी है हर महफ़िल-ए-ईज़ा-ए-तलबी

जैसे दुनिया में कोई ग़म न रहा मेरे बा'द

ख़ीरा हो जाती थी जिस से निगह-ए-सब्र-ओ-क़रार

उन के लब पर वो तबस्सुम न रहा मेरे बा'द

क्या ख़बर थी कि मैं ख़ुद साथ न दूँगा अपना

गोश्त हो जाएगा नाख़ुन से जुदा मेरे बा'द

फ़ितरत-ए-हुस्न को है ऐसे सितम-कश की तलाश

जो वफ़ा पर भी करे उज़्र-ए-ख़ता मेरे बा'द

ज़र्द कर देगा उसे मेरी तबाही का ख़याल

रंग लाया भी अगर रंग-ए-हिना मेरे बा'द

उन का दीवाना तो कहलाना है मुश्किल 'बासित'

कोई दीवाना अगर बन भी गया मेरे बा'द

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