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हर तरफ़ सोज़ का अंदाज़ जुदागाना है - बासित भोपाली कविता - Darsaal

हर तरफ़ सोज़ का अंदाज़ जुदागाना है

हर तरफ़ सोज़ का अंदाज़ जुदागाना है

मुतमइन शम्अ' है या रक़्स में परवाना है

बरतर-अज़-वहम-ओ-तसव्वुर मिरा मय-ख़ाना है

ज़िंदगी क्या है मिरी लग़्ज़िश-ए-मस्ताना है

वो जो इक शौक़-ए-जुनूँ-साज़ का अफ़्साना है

आँख शायद कहे दिल तो अभी दीवाना है

होश आया न कभी मैं ने जुनूँ को समझा

दावर-ए-हश्र यहीं तक मिरा अफ़्साना है

अब निगह उन की निगाहों से मिले या न मिले

ख़ुद ही पहुँचेगा जो तक़दीर का पैमाना है

आप सुन लें तो कुछ आ जाए असर भी शायद

यूँ तो हर तरह मुकम्मल मिरा अफ़्साना है

हुस्न इक फूल सही नाज़ुक-ओ-रंगीं लेकिन

इश्क़ से दूर है जब तक गुल-ए-वीराना है

कसरत-ए-फ़हम ने इतना भी समझने न दिया

मैं हूँ अफ़्साना कि दुनिया मिरा अफ़्साना है

ऐ ख़ुशा ताला-ए-बेदार-ए-मोहब्बत 'बासित'

आज उन की भी नज़र में मिरा अफ़्साना है

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