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हम जैसे तेग़-ए-ज़ुल्म से डर भी गए तो क्या - बासिर सुल्तान काज़मी कविता - Darsaal

हम जैसे तेग़-ए-ज़ुल्म से डर भी गए तो क्या

हम जैसे तेग़-ए-ज़ुल्म से डर भी गए तो क्या

कुछ वो भी हैं जो कहते हैं सर भी गए तो क्या

उठती रहेंगी दर्द की टीसें तमाम उम्र

हैं ज़ख़्म तेरे हाथ के भर भी गए तो क्या

हैं कौन से बहार के दिन अपने मुंतज़िर

ये दिन किसी तरह से गुज़र भी गए तो क्या

इक मक्र ही था आप का ईफ़ा-ए-अहद भी

अपने कहे से आज मुकर भी गए तो क्या

हम तो इसी तरह से फिरेंगे ख़राब-हाल

ये शेर तेरे दिल में उतर भी गए तो क्या

'बासिर' तुम्हें यहाँ का अभी तजरबा नहीं

बीमार हो? पड़े रहो, मर भी गए तो क्या

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