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हर-चंद मेरे हाल से वो बे-ख़बर नहीं - बासिर सुल्तान काज़मी कविता - Darsaal

हर-चंद मेरे हाल से वो बे-ख़बर नहीं

हर-चंद मेरे हाल से वो बे-ख़बर नहीं

लेकिन वो बे-कली जो इधर है उधर नहीं

आवाज़-ए-रफ़्तगाँ मुझे लाती है इस तरफ़

ये रास्ता अगरचे मिरी रहगुज़र नहीं

चमकी थी एक बर्क़ सी फूलों के आस-पास

फिर क्या हुआ चमन में मुझे कुछ ख़बर नहीं

कुछ और हो न हो चलो अपना ही दिल जले

इतना भी अपनी आह में लेकिन असर नहीं

आती नहीं है इन से शनासाई की महक

ये मेरे अपने शहर के दीवार-ओ-दर नहीं

'बासिर' जगा दिया है तुम्हें किस ने आधी रात

इस दश्त में तो नाम-ओ-निशान-ए-सहर नहीं

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