कहते हैं अर्ज़-ए-वस्ल पर वो कहो
दूसरी बात दूसरा मतलब
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ज़ौक़-ए-उल्फ़त अब भी है राहत का अरमाँ अब भी है
लड़ ही जाए किसी निगार से आँख
शाम भी है सुब्ह भी है और दिन भी रात भी
ये छेड़ क्या है ये क्या मुझ से दिल-लगी है कोई
रिहाई जीते जी मुमकिन नहीं है
है दुनिया में ज़बाँ मेरी अगर बंद
कभी दर पर कभी है रस्ते में
चराग़ उस ने बुझा भी दिया जला भी दिया
वो अपने मतलब की कह रहे हैं ज़बान पर गो है बात मेरी
ये उन का खेल तो देखो कि एक काग़ज़ पर
बंधन सा इक बँधा था रग-ओ-पय से जिस्म में