यूँ खुल गया है राज़-ए-शिकस्त-ए-तलब कभी

यूँ खुल गया है राज़-ए-शिकस्त-ए-तलब कभी

आँखों से बह गया है लहू बे-सबब कभी

वीरानियों ने थाम लिया दामन-ए-हयात

हम लोग भी थे ख़ंदा-ए-बज़्म-ए-तरब कभी

जो लोग आज ज़ीनत-ए-ख़्वाब-ओ-ख़याल हैं

रहते थे साथ साथ मिरे रोज़-ओ-शब कभी

आवारा आज सूरत-ए-बर्ग-ए-ख़िज़ाँ मिले

मिलती थी जिन से बाद-ए-सबा बा-अदब कभी

एक एक सम्त जिन को बगूले उड़ा गए

यकजा न हो सकेंगे वो औराक़ अब कभी

तर्क-ए-तअल्लुक़ात है फिर भी ठिठुक गए

गुज़रे हैं मेरे पास से हो कर वो जब कभी

मोहलत कुछ और कश्मकश-ए-इंतिज़ार दे

आ जाए कुछ ख़याल उसे क्या अजब कभी

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