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हब्स के दिनों में भी घर से कब निकलते हैं - बशीर सैफ़ी कविता - Darsaal

हब्स के दिनों में भी घर से कब निकलते हैं

हब्स के दिनों में भी घर से कब निकलते हैं

दाएरे के अंदर ही रास्ते बदलते हैं

ख़ून जलता रहता है गाँव के जवानों का

कार-ख़ाने शहरों के कब धुआँ उगलते हैं

तेरे नाम का तारा जाने कब दिखाई दे

इक झलक की ख़ातिर हम रात भर टहलते हैं

अब सफ़र कोई भी हो मैं कहाँ अकेला हूँ

तेरे चाँद सूरज भी साथ साथ चलते हैं

ऐन दोपहर में भी सर पे तेरा साया है

तुझ को भूल जाएँ तो चाँदनी में जलते हैं

खुल गए हैं फिर शायद रहमतों के दरवाज़े

हादसे कहाँ वर्ना टालने से टलते हैं

नींद के नगर से तो राब्ता नहीं टूटा

फ़िक्र-ए-शेर में 'सैफ़ी' करवटें बदलते हैं

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