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इक हुस्न-ए-बे-मिसाल के जो रू-ब-रू हूँ मैं - बशीर सैफ़ी कविता - Darsaal

इक हुस्न-ए-बे-मिसाल के जो रू-ब-रू हूँ मैं

इक हुस्न-ए-बे-मिसाल के जो रू-ब-रू हूँ मैं

महसूस हो रहा है ख़ुद अपना अदू हूँ मैं

अपनी गिरफ़्त-ए-शौक़ से निकलूँ तो किस तरह

फैला हुआ जहान में हर एक सू हूँ मैं

मुझ पे तिरी हयात का दार-ओ-मदार है

जज़्बों से झाँकता हुआ ज़िंदा लहू हूँ मैं

गूँजूँगा तेरे ज़ेहन के गुम्बद में रात-दिन

जिस को न तू भुला सके वो गुफ़्तुगू हूँ मैं

हर सुब्ह एक मार्का-ए-कर्बला सही

हर शाम अपने दोस्तों में सुर्ख़-रू हूँ मैं

पूछूँ मैं किस से आलम-ए-इम्काँ में किस लिए

अपने ही नक़्श-ए-पा की तरह कू-ब-कू हूँ मैं

'सैफ़ी' मैं अपने आप में नीलाम हो गया

किस को ख़बर थी शहर में इक ख़ूब-रू हूँ मैं

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