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ऐसा लगता है मुख़ालिफ़ है ख़ुदाई मेरी - बशीर सैफ़ी कविता - Darsaal

ऐसा लगता है मुख़ालिफ़ है ख़ुदाई मेरी

ऐसा लगता है मुख़ालिफ़ है ख़ुदाई मेरी

कोई करता ही नहीं खुल के बुराई मेरी

मुझ में मदफ़ून बड़े शहर-ए-मआनी थे मगर

दूर तक कर न सका वक़्त ख़ुदाई मेरी

बे-सदा शहर था ख़ामोश थे गलियों के मकीं

एक मुद्दत मुझे आवाज़ न आई मेरी

ख़ैर-ख़्वाही का रहा यूँ तो सभी को दा'वा

चाहता भी तो कोई दिल से भलाई मेरी

शब की दहलीज़ पे क़ज़्ज़ाक़ ज़रूरत तो नहीं

छीन लेता है जो दिन-भर की कमाई मेरी

कुछ मिरे इल्म ने भी मुझ को फ़ज़ीलत बख़्शी

फ़न से निस्बत ने भी तौक़ीर बढ़ाई मेरी

मुझ को मुझ तक ही न महदूद समझना 'सैफ़ी'

ला-मकाँ से भी परे तक है रसाई मेरी

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