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सब की मौजूदगी समझता है - बशीर महताब कविता - Darsaal

सब की मौजूदगी समझता है

सब की मौजूदगी समझता है

दिल किसी की कमी समझता है

एक ही शख़्स से मैं वाक़िफ़ हूँ

जो मुझे अजनबी समझता है

गो मुझे जानता नहीं लेकिन

वो मिरी शाइ'री समझता है

वस्ल के अश्क हिज्र के आँसू

वो नमी को नमी समझता है

वही मेरी ज़बाँ से है वाक़िफ़

जो मिरी ख़ामुशी समझता है

आप के सामने मैं ख़ुश हूँ मगर

मेरे दुख राम ही समझता है

यही उर्दू ज़बाँ का है जादू

अब मुझे हर कोई समझता है

मैं उसे बात दिल की कहता हूँ

वो उसे शाइ'री समझता है

इतना नादान भी नहीं है वो

जो तुम्हारी हँसी समझता है

कौन 'महताब' अब तुम्हारा है

कौन दिल की लगी समझता है

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