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रुख़ तुम्हारा हो जिधर हम भी उधर हो जाएँगे - बशीर महताब कविता - Darsaal

रुख़ तुम्हारा हो जिधर हम भी उधर हो जाएँगे

रुख़ तुम्हारा हो जिधर हम भी उधर हो जाएँगे

तुम से बिछड़ेंगे अगर तो दर-ब-दर हो जाएँगे

ज़िंदगानी के सफ़र में लुत्फ़ होगा तब नसीब

हम-ख़याल-ओ-हम-नवा जब हम-सफ़र हो जाएँगे

आसमानों का सफ़र हम तय करेंगे एक रोज़

जब हमारे हौसलों में बाल-ओ-पर हो जाएँगे

सादगी यूँही अगर लादे रहे तो एक दिन

सब तुम्हारे अपने तुम से बे-ख़बर हो जाएँगे

देखना जिस दिन उन्हें मक़्सद समझ में आएगा

मंज़िलों की जुस्तुजू में रहगुज़र हो जाएँगे

पौदे हैं उर्दू अदब के आब-ओ-दाना डालिए

आने वाले कल में साए और समर हो जाएँगे

साक़ी साग़र की ज़रूरत ही कहाँ मेरे लिए

तेरी आँखों के ही प्याले पुर-असर हो जाएँगे

वो न जाएँगे कभी 'महताब' ज़ुल्मत की तरफ़

वक़्त पर अंजाम से वाक़िफ़ अगर हो जाएँगे

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