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माना उस को गिला नहीं मुझ से - बशीर महताब कविता - Darsaal

माना उस को गिला नहीं मुझ से

माना उस को गिला नहीं मुझ से

कुछ तो है जो कहा नहीं मुझ से

हक़ नहीं दोस्ती का ऐसा कोई

जो कि उस को मिला नहीं मुझ से

दिल ही दिल में वो बुग़्ज़ रखता है

जो ब-ज़ाहिर ख़फ़ा नहीं मुझ से

कुछ तो होगा ज़रूर इस का सबब

वो जो अब तक लड़ा नहीं मुझ से

लाख पीछा छुड़ाना चाहा मगर

ग़म हुआ ही जुदा नहीं मुझ से

कैसे रह पाएगा वो मेरे बग़ैर

जो अलग ही रहा नहीं मुझ से

जो ब-ज़ाहिर ख़फ़ा है ऐ 'महताब'

वो ब-बातिन ख़फ़ा नहीं मुझ से

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