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किस मस्ती में अब रहता हूँ - बशीर महताब कविता - Darsaal

किस मस्ती में अब रहता हूँ

किस मस्ती में अब रहता हूँ

ख़ुद को ख़ुद में ढूँड रहा हूँ

दुनिया में सब से ही जुदा हूँ

आख़िर मैं किस दुनिया का हूँ

मैं तो ख़ुद को भूल चुका हूँ

तुम बतला दो कौन हूँ क्या हूँ

ये भी नहीं है याद मुझे अब

क्यूँ आख़िर रोता रहता हूँ

इक दुनिया है मेरे अंदर

उस में ही मैं घूम रहा हूँ

मुझ को नींद है प्यारी या फिर

उस को भी मैं ही प्यारा हूँ

वो रुख़ अपना फेर चुके हैं

मैं किस को अपना कहता हूँ

इन लफ़्ज़ों ने मंज़िल छीनी

आप चलें मैं अभी आता हूँ

मन तो ख़ुशियाँ बाँट रहा है

मैं क़तरा क़तरा रोता हूँ

ख़ुद का बोझ है कितना ख़ुद पर

कितना ख़ुद को झेल रहा हूँ

मुझ को तुम 'महताब' न समझो

शायद मैं उस का साया हूँ

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