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जब से मिरे रक़ीब का रस्ता बदल गया - बशीर महताब कविता - Darsaal

जब से मिरे रक़ीब का रस्ता बदल गया

जब से मिरे रक़ीब का रस्ता बदल गया

तब से मिरे नसीब का नक़्शा बदल गया

शीरीं था कितना आप का अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू

दो-चार सिक्के आते ही लहजा बदल गया

किस की ज़बान से मुझे देखो ख़बर मुझे

कैसे मिरे हरीफ़ का चेहरा बदल गया

उन के बदलने का मुझे अफ़्सोस कुछ नहीं

अफ़्सोस ये है अपना ही साया बदल गया

जब से बड़ों की घर से हुकूमत चली गई

जन्नत-नुमा मकान का नक़्शा बदल गया

राहों की ख़ाक छानता फिरता हूँ आज तक

रहबर बदल गया कभी रस्ता बदल गया

कहता है उस के जाने से कुछ भी नहीं हुआ

'महताब' जबकि दिल का वो ढाँचा बदल गया

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