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मिरे बदन में छुपी आग को हवा देगा - बशीर फ़ारूक़ी कविता - Darsaal

मिरे बदन में छुपी आग को हवा देगा

मिरे बदन में छुपी आग को हवा देगा

वो जिस्म फूल है लेकिन मुझे जला देगा

तुम्हारे मेहरबाँ हाथों को मेरे शाने से

मुझे गुमाँ भी न था वक़्त यूँ हटा देगा

है और कौन मिरे घर में ये सवाल न कर

मिरा जवाब तिरा रंग-ए-रुख़ उड़ा देगा

चले भी आओ कि ये डूबता हुआ सूरज

चराग़ जलने से पहले मुझे बुझा देगा

खड़े हुए हैं यहाँ तो बुलंद-हिम्मत लोग

थके हुओं को भला कौन रास्ता देगा

दरों को बंद करो वर्ना आँधियों का ये ज़ोर

तुम्हारे कच्चे घरों की छतें उड़ा देगा

जहाँ सब अपने ही दामन को देखते हों 'बशीर'

उस अंजुमन में भला कौन किस को क्या देगा

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