वो कभी शाख़-ए-गुल-ए-तर की तरह लगता है
वो कभी शाख़-ए-गुल-ए-तर की तरह लगता है
और कभी दशना-ओ-ख़ंजर की तरह लगता है
ले के आया हूँ मैं कुछ ख़्वाब उन आँखों के लिए
आइना भी जिन्हें पत्थर की तरह लगता है
हादसे ऐसे भी गुज़रे कि तसव्वुर जिन का
दिल को छू जाए तो ठोकर की तरह लगता है
हलचलें दायरा-ए-जाँ में छुपी रहती हैं
जिस से मिलिए वो समुंदर की तरह लगता है
कैसा मौसम है कि चुभती हैं बदन में किरनें
सर पे सूरज किसी ख़ंजर की तरह लगता है
आदमी शिद्दत-ए-एहसास का मारा हो अगर
बर्ग-ए-गुल भी उसे पत्थर की तरह लगता है
दश्त-ए-बे-आब में जलते हुए होंटों को 'बशीर'
एक क़तरा भी समुंदर की तरह लगता है
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