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ज़र्रों में कुनमुनाती हुई काएनात हूँ - बशीर बद्र कविता - Darsaal

ज़र्रों में कुनमुनाती हुई काएनात हूँ

ज़र्रों में कुनमुनाती हुई काएनात हूँ

जो मुंतज़िर है जिस्मों की मैं वो हयात हूँ

दोनों को प्यासा मार रहा है कोई यज़ीद

ये ज़िंदगी हुसैन है और मैं फ़ुरात हूँ

नेज़ा ज़मीं पे गाड़ के घोड़े से कूद जा

पर मैं ज़मीं पे आबला-पा ख़ाली हात हूँ

कैसा फ़लक हूँ जिस पे समुंदर सवार है

सूरज भी मेरे सर पे है मैं कैसी रात हूँ

अंधे कुएँ में मार के जो फेंक आए थे

उन भाइयों से कहियो अभी तक हयात हूँ

आती हुई ट्रेन के जो आगे रख गई

उस माँ से ये न कहना ब-क़ैद-ए-हयात हूँ

बाज़ार का नक़ीब समझ कर मुझे न छेड़

ख़ामोश रहने दे मैं तिरे घर की बात हूँ

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