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पिछली रात की नर्म चाँदनी शबनम की ख़ुनकी से रचा है - बशीर बद्र कविता - Darsaal

पिछली रात की नर्म चाँदनी शबनम की ख़ुनकी से रचा है

पिछली रात की नर्म चाँदनी शबनम की ख़ुनकी से रचा है

यूँ कहने को उस का तबस्सुम बर्क़-सिफ़त है शो'ला-नुमा है

वक़्त को माह-ओ-साल की ज़ंजीरों में जकड़ कर क्या पाया है

वक़्त तो माह-ओ-साल की ज़ंजीरों में और भी तेज़ बढ़ा है

इक मासूम से प्यार का तोहफ़ा घर के आँगन में पाया था

उस को ग़म के पागल-पन में कोठे कोठे बाँट दिया है

आँसू तारे रंग गुलाब सभी परदेस चले जाते हैं

आख़िर आख़िर तन्हाई है किस ने किस का साथ दिया है

नज़्म ग़ज़ल अफ़्साना गीत इक तरह ही ग़म था जिस को हम ने

कैसा कैसा नाम दिया है कैसे कैसे बाँट लिया है

आहों के बादल क्यूँ दिल में बिन बरसे ही लौट गए हैं

अब के बरस सावन का महीना कैसा प्यासा प्यासा गया है

फूल सी हर तस्वीर में ज़ेहन की दीवारों से उतार चुका हूँ

फिर भी दिल में काँटा सा क्यूँ रह रह कर चुभता रहता है

मजबूरी थी सब्र किया है पाँव को तोड़ के बैठ रहे हैं

नगरी नगरी देख चुके हैं द्वारे द्वारे झाँक लिया है

मुझ को उन सच्ची बातों से अपने झूट बहुत प्यारे हैं

जिन सच्ची बातों से अक्सर इंसानों का ख़ून बहा है

'बद्र' तुम्हारी फ़िक्र-ए-सुख़न पर इक अल्लामा हँस कर बोले

वो लड़का नौ-उम्र परिंदा ऊँचा उड़ना सीख रहा है

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