सोए हुए जज़्बों को जगा कर फिर वो शाम न आई
सोए हुए जज़्बों को जगा कर फिर वो शाम न आई
संग तिरे बस इक दिन आ कर फिर वो शाम न आई
तेरी बातों की ख़ुश्बू से महकी वादी वादी
फूलों के अम्बार लगा कर फिर वो शाम न आई
नदी किनारे का वो मंज़र तकने को जी चाहे
कूंजों की इक डार उड़ा कर फिर वो शाम न आई
बैठे बैठे जल उठती हैं भीगी भीगी आँखें
आब-ए-रवाँ में आग लगा कर फिर वो शाम न आई
रोज़ ही सूरज निकले 'मंज़र' रोज़ ही सूरज डूबे
मैं जिस की राह देखूँ जा कर फिर वो शाम न आई
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