हर रोज़ ही दिन भर के झमेलों से निमट के
हर रोज़ ही दिन भर के झमेलों से निमट के
रो लेते हैं हम रात के आँचल से लिपट के
हम कौन हैं क्यूँ बैठे हैं यूँ राहगुज़र पर
पूछा न किसी इक भी मुसाफ़िर ने पलट के
क्या क्या थे मिरे दिल के सहीफ़े में मज़ामीं
देखे न किसी ने मिरे औराक़ उलट के
फिरते रहे आवारा ख़यालात की सूरत
क्या चीज़ थी हम जिस के लिए दहर में भटके
शब करवटें लेते तो न गुज़रे कभी 'मुंज़िर'
सो जाओ मियाँ दर्द की बाहोँ में सिमट के
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