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बे-बसर आफ़ात से तकलीफ़ होती है मुझे - बशीर दादा कविता - Darsaal

बे-बसर आफ़ात से तकलीफ़ होती है मुझे

बे-बसर आफ़ात से तकलीफ़ होती है मुझे

सर-फिरे हालात से तकलीफ़ होती है मुझे

जो मिरे दुश्मन को समझा कर गई कम-ज़र्फ़ है

या'नी किस किस बात से तकलीफ़ होती है मुझे

आज बैरून-ए-क़फ़स सय्याद की पर्वा नहीं

आप अपनी ज़ात से तकलीफ़ होती है मुझे

जश्न कर मेरी तबाही पर कोई शिकवा नहीं

बस तिरी औक़ात से तकलीफ़ होती है मुझे

हम-नशीनी से तिरी हर शब बहुत शीरीन थी

जुज़ तिरे अब रात से तकलीफ़ होती है मुझे

ज़ुल्म का आदी हूँ ज़ंजीरी मिरी पहचान है

ख़ुद लगाई घात से तकलीफ़ होती है मुझे

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