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क़र्या क़र्या ख़ाक उड़ाई कूचा-गर्द फ़क़ीर हुए - बशीर अहमद बशीर कविता - Darsaal

क़र्या क़र्या ख़ाक उड़ाई कूचा-गर्द फ़क़ीर हुए

क़र्या क़र्या ख़ाक उड़ाई कूचा-गर्द फ़क़ीर हुए

पूरब पच्छिम ढूँडा उस को आख़िर गोशा-गीर हुए

कौन हैं ये क्या रब्त था उन से क्या कहिए कुछ याद नहीं

ये चेहरे कब दिल में उतरे किस लम्हे तस्वीर हुए

सौ पैराए ढूँडे फिर भी आज के दिन तक आजिज़ हैं

हाए वो बात जो कह भी न पाए और दफ़्तर तहरीर हुए

सदहा गहरी सोच में डूबी सदियाँ हम पर सर्फ़ हुईं

इक दो बरस की बात नहीं हम क़रनों में ता'मीर हुए

वो शब वो शब-ख़ून अदू का किस उस्लूब बयान करें

घायल कैसे पहरों तड़पे हम किस तौर असीर हुए

क्या मैं क्या तू आज भी दोनों ख़ाक हैं कल भी ख़ाक 'बशीर'

जीना उन का मरना उन का जो वज्ह-ए-ख़ैर-ए-कसीर हुए

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