कैसी कैसी थीं उन्ही गलियों में ज़ेबा सूरतें
कैसी कैसी थीं उन्ही गलियों में ज़ेबा सूरतें
याद इक इक मोड़ पे आती हैं क्या क्या सूरतें
नीम-शब होते हैं वा जिस दम दरीचे याद के
किस अदा से झाँकती हैं अब वो रा'ना सूरतें
सूरतें कुछ देख कर ऐसा भी आता था ख़याल
ख़ाक से ऐसी कहाँ होती हैं पैदा सूरतें
लूट कर पहले-पहल आए थे जब उस शहर से
अजनबी लगती थीं आँखों को शनासा सूरतें
आज तक वो दिल की दीवारों पे कंदा हैं 'बशीर'
फिर नज़र आएँ नहीं जो माह-सीमा सूरतें
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