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जुदा भी हो के वो इक पल कभी जुदा न हुआ - बशीर अहमद बशीर कविता - Darsaal

जुदा भी हो के वो इक पल कभी जुदा न हुआ

जुदा भी हो के वो इक पल कभी जुदा न हुआ

ये और बात कि देखे उसे ज़माना हुआ

न पूछ मेरा पता मौजा-ए-हवा हूँ मैं

भला हवा का भी कोई कभी ठिकाना हुआ

हर एक सम्त सहीफ़े खुले पड़े थे यहाँ

तिरा नसीब कि तू हर्फ़-आशना न हुआ

पनाह मिलती किसे मेरी किबरियाई से

ख़ुदा का शुक्र मैं बंदा हुआ ख़ुदा न हुआ

इस अपनी खोज में क्या क्या खुले न भेद मगर

मैं हूँ भी या कि नहीं मुझ पे आइना न हुआ

निदा-ए-ग़ैब थी तेरी सदा थी धड़कन थी

मिरे शुऊ'र से इतना भी फ़ैसला न हुआ

शजर तो राह का साया हैं उन को क्या मालूम

कहाँ से आया मुसाफ़िर किधर रवाना हुआ

फ़क़ीर हो के लिया तू ने क्या 'बशीर' कि जब

गलीम-पोश भी तू हो के बा-सफ़ा न हुआ

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