हर गाम पे आवारगी-ओ-दर-ब-दरी में
हर गाम पे आवारगी-ओ-दर-ब-दरी में
इक ध्यान का साया है मिरी हम-सफ़री में
ता-हद्द-ए-नज़र पिघली हुई रेत का दरिया
किस सम्त निकल आए हैं ये बे-ख़बरी में
किस की तरब-अंदाज़-नज़र घोल रही है
अंदोह-ओ-ग़म-ओ-सोज़ मिज़ाज-ए-बशरी में
क्या कोई कहीं कुंज-ए-ख़याबान-ए-सुकूँ है
ऐ दश्त-ए-ग़म-ए-ज़ीस्त तिरी बे-शजरी में
ऐ क़र्या-ए-दिल देख गुज़रती है इसी तौर
हर शहर पे बर्बादी-ओ-ज़ेर-ओ-ज़बरी में
अहल-ए-तलब-ओ-शौक़ ज़मानों से पड़े हैं
अर्सा-गह-ए-ख़ुद-सोज़ी-ओ-हैराँ-नज़री में
लहराए न लहराए वो अब बर्क़-ए-ख़द-ओ-ख़ाल
अब हम नहीं ख़ार-ए-ख़स-ए-आशुफ़्ता-सरी में
इक हमदम-ए-देरीना की यादों की कसक है
ख़ुश्बू-ए-ख़ुश-अनफ़ासी-ए-बाद-ए-सहरी में
निगराँ मिरी जानिब निगह-ए-ख़ुश-हुनराँ है
कुछ तो हुनर आख़िर है मिरी बे-हुनरी में
इक तेशा-ए-सद-पारा की सूरत हैं 'बशीर' अब
हासिल यद-ए-तूला था जिन्हें शीशा-गरी में
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