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हर गाम पे आवारगी-ओ-दर-ब-दरी में - बशीर अहमद बशीर कविता - Darsaal

हर गाम पे आवारगी-ओ-दर-ब-दरी में

हर गाम पे आवारगी-ओ-दर-ब-दरी में

इक ध्यान का साया है मिरी हम-सफ़री में

ता-हद्द-ए-नज़र पिघली हुई रेत का दरिया

किस सम्त निकल आए हैं ये बे-ख़बरी में

किस की तरब-अंदाज़-नज़र घोल रही है

अंदोह-ओ-ग़म-ओ-सोज़ मिज़ाज-ए-बशरी में

क्या कोई कहीं कुंज-ए-ख़याबान-ए-सुकूँ है

ऐ दश्त-ए-ग़म-ए-ज़ीस्त तिरी बे-शजरी में

ऐ क़र्या-ए-दिल देख गुज़रती है इसी तौर

हर शहर पे बर्बादी-ओ-ज़ेर-ओ-ज़बरी में

अहल-ए-तलब-ओ-शौक़ ज़मानों से पड़े हैं

अर्सा-गह-ए-ख़ुद-सोज़ी-ओ-हैराँ-नज़री में

लहराए न लहराए वो अब बर्क़-ए-ख़द-ओ-ख़ाल

अब हम नहीं ख़ार-ए-ख़स-ए-आशुफ़्ता-सरी में

इक हमदम-ए-देरीना की यादों की कसक है

ख़ुश्बू-ए-ख़ुश-अनफ़ासी-ए-बाद-ए-सहरी में

निगराँ मिरी जानिब निगह-ए-ख़ुश-हुनराँ है

कुछ तो हुनर आख़िर है मिरी बे-हुनरी में

इक तेशा-ए-सद-पारा की सूरत हैं 'बशीर' अब

हासिल यद-ए-तूला था जिन्हें शीशा-गरी में

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