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इक बे-सबात अक्स बना बे-निशाँ गया - बशीर अहमद बशीर कविता - Darsaal

इक बे-सबात अक्स बना बे-निशाँ गया

इक बे-सबात अक्स बना बे-निशाँ गया

मैं गंज-ए-बे-बहा था मगर राएगाँ गया

भटका मैं अपनी ज़ात की वुसअ'त में सू-ब-सू

मैं अपनी जुस्तुजू में कराँ ता कराँ गया

तहरीर इक और तैर के तहलील हो गई

इक और नक़्श-ए-लौह-ए-ज़मान-ओ-मकाँ गया

क़ाएम हुए दिलों के अबद-मौज राब्ते

इक जुम्बिश-ए-नज़र में ग़म-ए-दो-जहाँ गया

क्या क्या छुपे न सब्ज़ रिदाओं में रेगज़ार

क्या क्या न लुत्फ़-ए-सख़्ती-ए-दश्त-ए-तपाँ गया

जादू का था दयार कोई या तिलिस्म-ए-वहम

ये दम-ज़दन में शहर का मंज़र कहाँ गया

दर क्या खुले बशीर ख़ला-ए-बसीत के

दिल से हज़ार वसवसा-ए-आसमाँ गया

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