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विसाल - बशर नवाज़ कविता - Darsaal

विसाल

जब किसी तमतमाते हुए जिस्म का सरसराता हुआ पैरहन

रस-भर संतरे के चमकदार छिलके की मानिंद उतरने लगेगा

धुँदलके में सोए हुए नर्म बसर की नींदें

किसी सोंधी ख़ुश्बू की झंकार से जब उचट जाएँगी

और उलझी हुई गर्म साँसों की मौजों पे में

बे-सहारा भटकती हुई नाव की तरह बहने लगूँगा

यक़ीं है मुझे

तुम हवाओं की पोशाक पहने हुए

बंद कमरे की जन्नत में दर आओगी

अजनबी मुस्कुराते हुए जिस्म के एक एक नक़्श में आप ही

आप ढल जाओगी

दूर उफ़ुक़ के क़रीं

वो परिंदे फ़ज़ाओं में आहिस्ता आहिस्ता तहलील हो जाएँगे

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