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अज़ल-ता-अबद - बशर नवाज़ कविता - Darsaal

अज़ल-ता-अबद

उफ़ुक़-ता-उफ़ुक़ ये धुँदलके का आलम

ये हद-ए-नज़र तक

नम-आलूद सी रेत का नर्म क़ालीं कि जिस पर

समुंदर की चंचल जवाँ बेटियों ने

किसी नक़्श-ए-पा को भी न छोड़ा

फ़ज़ा अपने दामन में बोझल ख़मोशी समेटे है लेकिन

मचलती हुई मस्त लहरों के होंटों पे नग़्मा है रक़्साँ

ये नग़्मा सुना था मुझे याद आता नहीं कब

मगर हाँ

बस एहसास है इस क़दर क़र्न-हा क़र्न पहले

कि गिनना भी चाहे तो कोई जिन्हें गिन न पाए

भला रेग-ए-साहिल के फैले हुए नन्हे ज़र्रों को कोई कहाँ तक गिने

मचलती हुई मस्त लहरों को साहिल से छुटने का ग़म ही नहीं है

विदा-ए-सुकूँ जैसे कोई सितम ही नहीं है

जिसे क़र्न-हा-क़र्न पहले भी मैं ने सुना था

जिसे लोग सूरज के बुझने तलक यूँही सुनते रहेंगे

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