वो शाह-ए-हुस्न जो बे-मिस्ल है हसीनों में
वो शाह-ए-हुस्न जो बे-मिस्ल है हसीनों में
कभी फ़क़ीर भी था उन के हम-नशीनों में
अगर हयात है देखेंगे एक दिन दीदार
कि माह-ए-ईद भी आख़िर है इन महीनों में
न इख़्तिलात न वो आँख है न वो चितवन
ये क्या सबब कि पड़ा फ़र्क़ सब क़रीनों में
नहीं बुतों के तसव्वुर से कोई दिल ख़ाली
ख़ुदा ने उन को दिए हैं मकान सीनों में
मआल-ए-कार वही सब का है वही आग़ाज़
हज़ार फ़र्क़ करें ख़ुद-परस्त दीनों में
अबस हरीस हवस से ज़लील होते हैं
अमिट है 'बर्क़' जो तहरीर है जबीनों में
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