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वहशत में भी रुख़ जानिब-ए-सहरा न करेंगे - मिर्ज़ा रज़ा बर्क़ कविता - Darsaal

वहशत में भी रुख़ जानिब-ए-सहरा न करेंगे

वहशत में भी रुख़ जानिब-ए-सहरा न करेंगे

जब तक कि तुम्हें शहर में रुस्वा न करेंगे

घबरा गए बेताबी-ए-दिल देख के ऐ जान

ठहरो तो अभी हिज्र में क्या क्या न करेंगे

मर जाऊँ तो मर जाऊँ बुरा मानें तो मानें

फिर कैसे मसीहा हैं जो अच्छा न करेंगे

वो हुस्न में कामिल हैं तो हम सब्र में यकता

ता उम्र कभी ज़िक्र भी उन का न करेंगे

छुप छुप के कहेंगे जो छुपाने के सुख़न हैं

हम तुम से किसी बात का पर्दा न करेंगे

बदनामी से डरते हो अबस इश्क़ में ऐ 'बर्क़'

कब तक बशर इस बात का चर्चा न करेंगे

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