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न रहे नामा ओ पैग़ाम के लाने वाले - मिर्ज़ा रज़ा बर्क़ कविता - Darsaal

न रहे नामा ओ पैग़ाम के लाने वाले

न रहे नामा ओ पैग़ाम के लाने वाले

ख़ाक के नीचे गए अर्श के जाने वाले

किश्वर-ए-इश्क़ की रस्में अजब उल्टी देखीं

सल्तनत करते हैं सब दिल के चुराने वाले

मुनइमो आलम-ए-दुनिया है सरा-ए-इबरत

जाएँगे सू-ए-अदम ख़ल्क़ में आने वाले

बोरिया साथ न जाएगा न तख़्त-ए-सुल्ताँ

सब बराबर हैं बशर ख़ल्क़ से जाने वाले

कोई बाक़ी न रहा है न रहेगा कोई

बे-निशाँ हो गए सब शान दिखाने वाले

न सिकंदर है न दारा है न क़ैसर है न जम

बे-महल ख़ाक में हैं क़स्र बनाने वाले

अपने अशआर का ऐ 'बर्क़' न क्यूँ शोहरा हो

साथ हैं ताइर-ए-मज़मूँ के उड़ाने वाले

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