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मतलब न काबे से न इरादा कनिश्त का - मिर्ज़ा रज़ा बर्क़ कविता - Darsaal

मतलब न काबे से न इरादा कनिश्त का

मतलब न काबे से न इरादा कनिश्त का

पाबंद ये फ़क़ीर नहीं संग-ओ-ख़िश्त का

सरसब्ज़ हूँ जो आप दिखा दीजे ख़त-ए-सब्ज़

कुश्तों को खेत में अभी आलम हो किश्त का

उस हूर की जो गुल्शन-ए-आरिज़ की याद थी

देखा किया फ़िराक़ में आलम बहिश्त का

क्या मुंशी-ए-अज़ल की ये सनअत है देखना

माहिर नहीं किसी की कोई सरनविश्त का

नादान ए'तिराज़ है साने पे ग़ौर कर

बेजा है इम्तियाज़ यहाँ ख़ूब ओ ज़िश्त का

ऐ 'बर्क़' सैर करते हैं हम तो जहान की

हर कूचा-ए-सनम है नमूना बहिश्त का

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