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चाँद सा चेहरा जो उस का आश्कारा हो गया - मिर्ज़ा रज़ा बर्क़ कविता - Darsaal

चाँद सा चेहरा जो उस का आश्कारा हो गया

चाँद सा चेहरा जो उस का आश्कारा हो गया

तन पे हर क़तरा पसीने का शरारा हो गया

छुप सका दम भर न राज़-ए-दिल फ़िराक़-ए-यार में

वो निहाँ जिस दम हुआ सब आश्कारा हो गया

जिस को देखा चश्म-ए-वहदत से वही माशूक़ है

पड़ गई जिस पर नज़र उस का नज़ारा हो गया

हम-किनारी की हवस ऐ गौहर-ए-यकता ये है

आब हो कर ग़म से दिल दरिया हमारा हो गया

ख़ल्क़ में गर्द-ए-यतीमी से गुहर की क़द्र है

ख़ाकसारी से फ़ुज़ूँ रुत्बा हमारा हो गया

दिल में है ऐ 'बर्क़' उस बुत के दर-ए-दंदाँ की याद

ये गुहर अर्श-ए-बरीं का गोश्वारा हो गया

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