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ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है - मिर्ज़ा रज़ा बर्क़ कविता - Darsaal

ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है

ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है

वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है

नहीं बचता नहीं बचता नहीं बचता आशिक़

पूछते क्या हो शब-ए-हिज्र में क्या होता है

बे-असर नाले नहीं आप का डर है मुझ को

अभी कह दीजिए फिर देखिए क्या होता है

क्यूँ न तश्बीह उसे ज़ुल्फ़ से दें आशिक़-ए-ज़ार

वाक़ई तूल-ए-शब-ए-हिज्र बला होता है

यूँ तकब्बुर न करो हम भी हैं बंदे उस के

सज्दे बुत करते हैं हामी जो ख़ुदा होता है

'बर्क़' उफ़्तादा वो हूँ सल्तनत-ए-आलम में

ताज-ए-सर इज्ज़ से नक़्श-ए-कफ़-ए-पा होता है

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