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यूँ भी होने का पता देते हैं - बाक़ी सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

यूँ भी होने का पता देते हैं

यूँ भी होने का पता देते हैं

अपनी ज़ंजीर हिला देते हैं

पहले हर बात पे हम सोचते थे

अब फ़क़त हाथ उठा देते हैं

क़ाफ़िला आज कहाँ ठहरेगा

क्या ख़बर आबला-पा देते हैं

बाज़-औक़ात हवा के झोंके

लौ चराग़ों की बढ़ा देते हैं

दिल में जब बात नहीं रह सकती

किसी पत्थर को सुना देते हैं

एक दीवार उठाने के लिए

एक दीवार गिरा देते हैं

सोचते हैं सर-ए-साहिल 'बाक़ी'

ये समुंदर हमें क्या देते हैं

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