तुम कब थे क़रीब इतने मैं कब दूर रहा हूँ
तुम कब थे क़रीब इतने मैं कब दूर रहा हूँ
छोड़ो न करो बात कि मैं तुम से ख़फ़ा हूँ
रहने दो कि अब तुम भी मुझे पढ़ न सकोगे
बरसात में काग़ज़ की तरह भीग गया हूँ
सौ बार गिरह दे के किसी आस ने जोड़ा
सौ बार मैं धागे की तरह टूट चुका हूँ
जाएगा जहाँ तू मिरी आवाज़ सुनेगा
मैं चोर की मानिंद तिरे दिल में छुपा हूँ
इक नुक़्ते पे आ कर भी हम-आहंग नहीं हैं
तू अपना फ़साना है तो मैं अपनी सदा हूँ
छेड़ो न अभी शाख़-ए-शिकस्ता का फ़साना
ठहरो मैं अभी रक़्स-ए-सबा देख रहा हूँ
मंज़िल का पता जिस ने दिया था मुझे 'बाक़ी'
उस शख़्स से रस्ते में कई बार मिला हूँ
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