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तिरी निगाह का अंदाज़ क्या नज़र आया - बाक़ी सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

तिरी निगाह का अंदाज़ क्या नज़र आया

तिरी निगाह का अंदाज़ क्या नज़र आया

दरख़्त से हमें साया जुदा नज़र आया

बहुत क़रीब से आवाज़ एक आई थी

मगर चले तो बड़ा फ़ासला नज़र आया

ये रास्ते की लकीरें भी गुम न हो जाएँ

वो झाड़ियों का नया सिलसिला नज़र आया

ये रौशनी की किरन है कि आग का शो'ला

हर एक घर मुझे जलता हुआ नज़र आया

कली कली की सदा गूँजने लगी दिल में

जहाँ भी कोई चमन-आश्ना नज़र आया

सुनो तो किस लिए पत्थर उठाए फिरते हो

कहो तो आईना-ख़ाने में क्या नज़र आया

ये दोपहर ये पिघलती हुई सड़क 'बाक़ी'

हर एक शख़्स फिसलता हुआ नज़र आया

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