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तारे दर्द के झोंके बन कर आते हैं - बाक़ी सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

तारे दर्द के झोंके बन कर आते हैं

तारे दर्द के झोंके बन कर आते हैं

हम भी नींद की सूरत उड़ते जाते हैं

जब अंदाज़ बहारों के याद आते हैं

हम काग़ज़ पर क्या क्या फूल बनाते हैं

वक़्त का पत्थर भारी होता जाता है

हम मिट्टी की सूरत देते जाते हैं

क्या ज़र्रों का जोश सबा ने छीन लिया

गुलशन में क्यूँ याद बगूले आते हैं

दुनिया ने हर बात में क्या क्या रंग भरे

हम सादा औराक़ उलटते जाते हैं

दिल नादाँ है शायद राह पे आ जाए

तुम भी समझाओ हम भी समझाते हैं

तुम भी उल्टी उल्टी बातें पूछते हो

हम भी कैसी कैसी क़समें खाते हैं

बैठ के रोएँ किस को फ़ुर्सत है 'बाक़ी'

भूले-बिसरे क़िस्से याद तो आते हैं

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