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ऐसा वार पड़ा सर का - बाक़ी सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

ऐसा वार पड़ा सर का

ऐसा वार पड़ा सर का

भूल गए रस्ता घर का

ज़ीस्त चली है किस जानिब

ले कासा कासा मर का

क्या क्या रंग बदलता है

वहशी अपने अंदर का

दिल से निकल कर देखो तो

क्या आलम है बाहर का

सर पर डाली सरसों की

पाँव में काँटा कीकर का

कौन सदफ़ की बात करे

नाम बड़ा है गौहर का

दिन है सीने का घाव

रात है काँटा बिस्तर का

अब तो वो जी सकता है

जिस का दिल हो पत्थर का

छोड़ो शे'र उठो 'बाक़ी'

वक़्त हुआ है दफ़्तर का

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