दश्त-ओ-दरिया के ये उस पार कहाँ तक जाती
दश्त-ओ-दरिया के ये उस पार कहाँ तक जाती
घर की दीवार थी दीवार कहाँ तक जाती
मिट गई हसरत-ए-दीदार भी रफ़्ता रफ़्ता
हिज्र में हसरत-ए-दीदार कहाँ तक जाती
थक गए होंट तिरा नाम भी लेते लेते
एक ही लफ़्ज़ की तकरार कहाँ तक जाती
लाज रखना थी मसीहाई की हम को वर्ना
देखते लज़्ज़त-ए-आज़ार कहाँ तक जाती
राहबर उस को सराबों में लिए फिरते थे
ख़िल्क़त-ए-शहर थी बीमार कहाँ तक जाती
हर तरफ़ हुस्न के बाज़ार लगे थे 'बाक़ी'
हर तरफ़ चश्म-ए-ख़रीदार कहाँ तक जाती
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