बहुत जल्दी थी घर जाने की लेकिन
बहुत जल्दी थी घर जाने की लेकिन
मुझे फिर शाम रस्ते में पड़ी है
निसाब-ए-ज़िंदगी जिस में लिखा है
किताब-ए-दिल वो बस्ते में पड़ी है
नहीं अर्ज़ां मता-ए-राएगानी
मगर मुझ को ये सस्ते में पड़ी है
वो ऐसे ढूँडने निकले हैं 'बाक़ी'
मोहब्बत जैसे रस्ते में पड़ी है
(1095) Peoples Rate This