ये रुख़-ए-यार नहीं ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ के तले
ये रुख़-ए-यार नहीं ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ के तले
है निहाँ सुब्ह-ए-वतन शाम-ए-ग़रीबाँ के तले
क्या करें सीना जो नासेह से छुपाते न फिरें
दाग़ से दाग़ हैं कुछ अपने गरेबाँ के तले
आह की बर्क़ जो सीने में चमकती देखी
तिफ़्ल-ए-अश्क आ ही छुपे दामन-ए-मिज़्गाँ के तले
दिल में आता है करूँ ऐ गुल-ए-ख़ंदाँ तुझ बिन
बैठ कर गिर्या किसी नख़्ल-ए-गुलिस्ताँ के तले
यूँ निहाँ दाग़-ए-जिगर आह से रखता हूँ कि जूँ
बाद से शम्अ छुपावे कोई दामाँ के तले
शैख़ डरता हूँ कहीं बैठ न जावे ये कुआँ
मत खड़ा हो तू असा रख के ज़नख़दाँ के तले
नहीं मिलने की 'बक़ा' हम को ब-जुज़ कुंज-ए-मज़ार
जा-ए-आसूदगी इस गुम्बद-ए-गर्दां के तले
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