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ये रुख़-ए-यार नहीं ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ के तले - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

ये रुख़-ए-यार नहीं ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ के तले

ये रुख़-ए-यार नहीं ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ के तले

है निहाँ सुब्ह-ए-वतन शाम-ए-ग़रीबाँ के तले

क्या करें सीना जो नासेह से छुपाते न फिरें

दाग़ से दाग़ हैं कुछ अपने गरेबाँ के तले

आह की बर्क़ जो सीने में चमकती देखी

तिफ़्ल-ए-अश्क आ ही छुपे दामन-ए-मिज़्गाँ के तले

दिल में आता है करूँ ऐ गुल-ए-ख़ंदाँ तुझ बिन

बैठ कर गिर्या किसी नख़्ल-ए-गुलिस्ताँ के तले

यूँ निहाँ दाग़-ए-जिगर आह से रखता हूँ कि जूँ

बाद से शम्अ छुपावे कोई दामाँ के तले

शैख़ डरता हूँ कहीं बैठ न जावे ये कुआँ

मत खड़ा हो तू असा रख के ज़नख़दाँ के तले

नहीं मिलने की 'बक़ा' हम को ब-जुज़ कुंज-ए-मज़ार

जा-ए-आसूदगी इस गुम्बद-ए-गर्दां के तले

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