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थे हम इस्तादा तिरे दर पे वले बैठ गए - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

थे हम इस्तादा तिरे दर पे वले बैठ गए

थे हम इस्तादा तिरे दर पे वले बैठ गए

तू ने चाहा था कि टाले न टले बैठ गए

बज़्म में शैख़-जी अब है कि है याँ ऐब नहीं

फ़र्श पर गर न मिली जा तो तले बैठ गए

ग़ैर बद-वज़अ' हैं महफ़िल से शिताब उन की उठो

पास ऐसों के तुम ऐ जान भले बैठ गए

घर से निकला न तू और मुंतज़िरों ने तेरे

दर पे नाले किए याँ तक कि गले बैठ गए

ना-तवाँ हम हुए याँ तक कि तिरी महफ़िल तक

घर से आते हुए सौ बार चले बैठ गए

अश्क और आह की शिद्दत न थमी गरचे 'बक़ा'

घर के घर इस में हज़ारों के जले बैठ गए

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