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सिपाह-ए-इशरत पे फ़ौज-ए-ग़म ने जो मिल के मरकब बहम उठाए - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

सिपाह-ए-इशरत पे फ़ौज-ए-ग़म ने जो मिल के मरकब बहम उठाए

सिपाह-ए-इशरत पे फ़ौज-ए-ग़म ने जो मिल के मरकब बहम उठाए

इधर तो नाले का ताशा कड़का उधर फ़ुग़ाँ ने अलम उठाए

इस अश्क ओ लख़्त-ए-जिगर से इक ही फ़क़त न मर्दुम को फ़ाएदा है

जो दुर के रोले अदद किसी ने तो ला'ल के भी रक़म उठाए

सबब रक़ीबों के बज़्म में अब गई वो आपस की हम-नशीनी

हम आन बैठे तो उठ गया वो वो आन बैठा तो हम उठ आए

तही-कफ़ आए थे हम अदम से चले भी याँ से तो दस्त-ए-ख़ाली

न तोशा वाँ से लिया था ज़र का न साथ याँ से दिरम उठाए

'बक़ा' जो राही हुए अदम के तो वक़्फ़ा हरगिज़ करो न दम का

ये राह हस्ती की पुर-ख़तर है चलो यहाँ से क़दम उठाए

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