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सीखा जो क़लम से न-ए-ख़ाली का बजाना - बक़ा उल्लाह 'बक़ा' कविता - Darsaal

सीखा जो क़लम से न-ए-ख़ाली का बजाना

सीखा जो क़लम से न-ए-ख़ाली का बजाना

कर नग़्मा 'बक़ा' फ़िक्रत-ए-आली का बजाना

तस्मा मिरे मत दिल पे दिवाली का बजाना

ये लट जो है चाबुक उसी काली का बजाना

मारा किए मुतरिब ब-चुगाँ दिल पे थपेड़े

सीखे इसी तबले पे वो ताली का बजाना

उल्फ़त में तिरी ऐ बुत-ए-बे-मेहर-ओ-मोहब्बत

आया हमें इक हाथ से ताली का बजाना

ले मोल मिरे दिल का वो जब साग़र-ए-नाज़ुक

याद आवे न काश उस को सिफ़ाली का बजाना

इस नाला-ए-बे-सौत ने हैरत में सिखाया

साज़ अब मुझे तस्वीर-ए-निहाली का बजाना

बस ऐ ग़म-ए-ग़म्माज़ मिरी आह-ए-जिगर से

ला'नत है तिरा बाम पे थाली का बजाना

बे-साक़ी-ओ-मय सोच में है काम हमारा

बैठे सिर-ए-नाख़ुन से प्याली का बजाना

इस कूदक-ए-बे-होश का आफ़त है शब उठ कर

ठेकों पे मिरी आह के ताली का बजाना

सुनता हूँ किसी पोच की जब दफ़-ज़नी-ए-फ़िक्र

आता है मुझे याद डफ़ाली का बजाना

करता है 'बक़ा' नाला तो कर झाँज में दिल से

बे-झाँज है क्या इस दफ़-ए-ख़ाली का बजाना

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